सीप में बंद ना रहें हम बाहर निकलें, सिंधीयत के रंग बिखेरें
मोहन थानवी
कभी-कभी लगता है हम अपनी ही भीड़ में अपने आप को खड़ा करके कह रहे हैं हम सिंधी हैं। जब कि मुझे ऐसा महसूस होता है कि हम बाजार में खड़े होकर यह क्यों न कहे कि हम सिंधी हैं?
अपने लोगों के बीच कहते रहने की बजाय हम बाजार में क्यों न यह सिद्ध करें कि हम सिंधी हैं। हां, बाजार में ऐसा सिद्ध करने के लिए हमें सिंधी पकवानों, सिंधी परिधानों और सिंधी संस्कृति से संबंधित बाजारी चीजों का विज्ञापन करना होगा।
ऐसे विज्ञापन हम कर नहीं रहे। क्योंकि पैसा लगता है। विज्ञापन बाजार में जमे रहने की अनिवार्यता है। हर कोई विज्ञापन नहीं कर सकता। हां, हर पैसे वाला कर सकता है। ऐसी दुकानें खोलकर और खुलवा कर।
केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि यह फैक्ट्री या यह बड़ा शोरूम या ये मॉल या यह श्रृंखलाबद्ध दुकानें हमारे सिंधी भाई की हैं। ये विचारकर देखिए कि उन दुकानों में मिलता क्या है? सामान तो वहां भी वही मिलता है जो अन्य जगह।
हमें यह भी देखना होगा कि हम अपनी परंपरा से जुड़ी चीजों की खरीद करते हैं या...। अनदेखी कर अन्यान्य जाति समुदायों और देशों से उनकी परंपराओं से जुड़ी चीजें खरीद रहे हैं। आयात करके बाहरी सामान बेच रहे हैं।
ऐसी बातों की भर्त्सना तो औरों की तरह मैं भी कर लूंगा। लेकिन मुझे यह भी तो सोचना होगा कि अपनी सिंधीयत के लिए हम क्या करें। जो दूसरों ने किया, वे आज बाजार में भी चमक रहे हैं। और अपने समाज को भी प्रमुखता से उभार कर दुनिया के समक्ष रखने में कमोबेश हमसे तो आगे हैं।
हरेक की अपनी अपनी सीमाएं होती है। मेरी भी सीमाएं हैं। आपकी भी। जिन साथियों भाइयों के साथ उठता बैठता हूं उनकी भी सीमाएं है। और यह बात आप तक पहुंचा रहा हूं तो आप सब की भी अपनी अपनी सीमाएं हैं। मेरी सीमा सोच विचार करने तक सीमित रह गई है। ऐसा मैं अपने परिवेश और अपनी स्थिति को देखते हुए बेझिझक कह सकता हूं।
लेकिन जिन साथियों और भाइयों की सीमाएं मुझसे बड़ी है। वह जरूर बहुत कुछ कर सकते हैं। और उस बहुत कुछ ही हमारा बाजार जमाएगा।
मैं समझता हूं कि हमें ऐसी दुकाने तैयार करनी ही होगी जहां सिंधियत के रंग बिखरे हों। मुझे यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि मैं यहां दुकानें बाजार आदि शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं। जो कि बाजारीकरण के प्रभाव से मेरे जेहन में उभरे हैं। उन्हें प्रतीक मान लिया जाए। और ऐसे ही प्रयास किए जाएं जो दुकानें और बाजार को जमाने के लिए किए जाते हैं।
मुझे लगता है हमने पंजाबी ढाबा में बहुत कुछ खा लिया। मुझे लगता है हमने बंगाली मिठाइयों का स्वाद भी बहुत चख लिया। मुझे लगता है हमने सूट-बूट भी बहुत पहन लिए। लेकिन मुझे यह भी लगता है कि हमने जीवन में सिंधियत से जुड़ी ऐसी क्या चीजें खाई जिनको पकवानों के रूप में दुनिया तक न पहुंचा सके? जो हम दुनिया तक पहुंचा सकते हैं? लेकिन पहुंचाया नहीं,.... ।
मुझे यह भी लगता है कि हमने ऐसा क्या पहन लिया जिसे दुनिया को बताया? सिंधियत की पहचान के रूप में हमने दुनिया के लोगों को पहनने के लिए प्रेरित किया...?
और यह भी बेझिझक कह सकता हूं मेरी समझ में यह सारे काम सक्षम लोग कर सकते हैं। और आज की युवा पीढ़ी सक्षम है। वह लोग भी सक्षम हैं जिनके पास पैसा है। और वह अपने हुनर से अपनी मेहनत से पैसा कमा रहे हैं।
(ये मेरे निजी विचार और सुझाव हैं। - मोहन थानवी )